३ जून २०११ को पब्लिक पोलिटिकल पार्टी (पपोपा) का पंजीयन भारत के निर्वाचन आयोग में आख़िरकार हो ही गया. पब्लिक पोलिटिकल पार्टी सामाजिक न्याय चाहती है और सवर्णों को उनका अधिकार दिलाना चाहती है और तथाकथित सामाजिक न्याय के नाम पर सवर्णों को शोषण से बचाना चाहती है. यह केवल केंद्र एवं राज्यों में सरकार बनाकर नहीं हो सकता है यह परिवर्तन २/३ बहुमत के आधार पर ही किया जा सकता है.
सवर्ण शोषण का इतिहास १९३२ से आरम्भ होता है जब आखरी बार जाति आधारित जनगणना हुई थी. पपोपा के जन्म के बीज १९३२ से ही पड़ने लगे थे. १९३२ से पूर्व तथाकथित सवर्णों ने तथाकथित दलितों का शोषण किया. इस शोषण के सच्चे झूठे सबूतों को इकठ्ठा किया गया और इन सबूतों की दिखा दिखा कर सवर्णों से इस तथाकथित शोषण का मुआवजा माँगा गया. मुआवजे के तौर पर सवर्णों ने अपनी जमीने दे दी, अपनी सरकारी नौकरियां दे दी, अपनी पदोन्नतियां भी दे दी, अपनी शिक्षा भी दे दी तब भी मुआवजा पूरा नहीं पड़ रहा है. इसाई शासको जिन्हें उनकी भाषा के कारण भारतीय लोग अंग्रेज बोलते हैं ने फूट डालो शासन करो की नीति के अंतर्गत जातिओं के लिए दो सूचियाँ बना दी: एक को अनुसूचित जाति एवं दुसरे को अनुसूचित जनजाति कहा. धीरे धीरे इन सूचियों में शामिल जातिओं को बची हुई जातिओं जिन्हें हम सवर्ण कह सकते हैं से छीन-छीन कर सबकुछ देने लगे. इस छीना झपटी को न्याय बताने लगे. इस न्याय का सम्बन्ध उस अन्याय से जोड़ने लगे जो शायद पूर्वजों ने किये थे.
सबसे पहले आय का साधन जमीन छिना गया. सवर्णों को सरकार ने समझाया देखो जमीन सीमित है, कुछ लोगों के पास जमीन नही है अतः तुम अपनी जमीन उन लोगों को दे दो. हदबंदी कानून भी बना दिए गए इसके अंतर्गत एक निश्चित सीमा से अधिक जमीन नहीं रखी जा सकती थी. सैद्धांतिक रूप से बात ठीक थी. सवर्णों ने अपनी जमीने दे दी. आज तक इन पंक्तियों के लेखक को कोई सवर्ण जाति का व्यक्ति नहीं मिला जिसे इस सिद्धांत के कारण एक इंच भी जमीन मिली हो. जिन लोगों को जमीने मिली उनमे से एक भी सवर्ण नहीं था. इस हदबंदी एवं तथाकथित भूमि सुधारों का एक ही उद्देश्य था-सवर्णों से छीनो और दलितों को दो. जमीन केवल संपत्ति नहीं थी-यह तो रोज़गार का साधन थी. सवर्णों से रोज़गार का साधन छीन लिया गया. जिनके पास जमीने बच भी गयी तो कृषि उत्पादों को इतना सस्ता बनाये रखा गया की इससे जीवन यापन होना मुश्किल हो गया.
आय का साधन जमीन छीने जाने से सवर्णों ने नौकरियां करना प्रारंभ किया. तथाकथित समाजवाद में सरकार सारे काम करने लगी. धीरे धीरे भारतीय संविधान की दुहाई दे देकर सारी सरकारी नौकरियां दलितों को दी जाने लगी. केंद्र और राज्य सरकारों में तो होड़ सी लग गयी की सवर्णों से कौन कितनी नौकरियां छीन सकता है. वो तो भला हो भारत की न्यायपालिका का जिसने सवर्णों के अधिकार कुछ हद तक बचा लिए. नौकरियों को छीनने के लिए सरकार ने एक और सूचि ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ बना दी. बेचारे ईसाईयों ने तो छोटी सी फूट डाली थी-केवल २२.५% की. भारत सरकार ने तो बड़ी फूट डाल दी २७% की. इस फूट को आरक्षण नाम दिया गया. इस प्रकार सवर्णों से सरकारी नौकरियां छीन ली गयी.
परिवार नियोजन के नाम पर सवर्णों को समझाया गया की कम से कम बच्चे पैदा करें. सवर्णों ने यह बात समझ ली पर यह नहीं समझ पाए की लोकतंत्र में जनसँख्या का ही महत्व होता है. यह बात दलितों ने समझ ली. १९३१ में जाति आधारित जनगणना हुई थी तब से अब तक दुबारा जातिओं को नहीं गिना गया है इसके बावजूद तथाकथित दलित भारत की जनगणना में ८५% की भागीदारी का दावा करने लगे हैं.
यह सब कुछ हो रहा है सवर्णों के साथ वह भी सामाजिक न्याय के नाम पर. हमें यह नहीं भूलना चाहिए की सरकारें कानून बनाकर ही शोषण एवं अन्याय करती हैं. जैसे अडोल्फ़ हिटलर ने ४०० कानून बनाकर किया. क्या हम इसे न्याय कहेंगे? हत्या करने के दो तरीके हैं: एक तो कातिल खुद चाकू से क़त्ल कर दे और दूसरा यह की कातिल किसी को इतना मजबूर कर दे की वह खुद आत्महत्या कर ले. पहला तरीका जर्मनी में अडोल्फ़ हिटलर ने अपनाया था और दूसरा भारत की केंद्र एवं राज्य सरकारें अपना रही हैं. जब सवर्णों के सारे रोज़गार के साधन छीन लिए जायेंगे तो सवर्ण क्या करेंगे. क्या यह आत्महत्या के लिए उकसाने का प्रयास नहीं है?
