राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी एक ही सिक्के के दो पहलु हैं. आरक्षण के मुद्दे पर दोनों का कहना है की ‘चित भी मेरी-पट भी मेरी; अंटा मेरे बाप का’. यद्यपि यह एक मुहावरा है पर आरएसएस और भाजपा पर एकदम सटीक बैठता है.

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने आरक्षण पर राजनीति और उसके दुरूपयोग का आरोप लगाया है. संघ के सर संघचालक ने कहा की एक समिति बनाई जानी चाहिए जो यह तय करे की कितने लोगों को और कितने दिनों तक आरक्षण की आवश्यकता होनी चाहिए. भागवत ने कहा की संविधान में सामाजिक रूप से पिछड़ो के आरक्षण की बात है. उसका राजनितिक रूप से उपयोग किया गया. संघ प्रमुख ने कहा (निश्चित रूप से भाजपा की केंद्र सरकार से कहा होगा) एक समिति बना दो. संघ प्रमुख के शुभ विचारों से सवर्णों को लगा की चलो देर से ही सही आरक्षण पर पुनर्विचार तो होगा. (जोकि हर बार पुनर्विचार के बाद आरक्षण बढ़  जाता है)

भाजपा की गर्भ नाल आरएसएस से जुडी है. अर्थात आरएसएस भाजपा में माँ है. माँ के विचार बेटे के विचारों से मेल नहीं खाते. क्यूंकि अगले ही दिन बेटे अर्थात भाजपा ने माँ की सलाह मानने से मना कर दिया. निजी और सार्वजनिक जीवन दोनों में मतभेद और मनभेद दोनों आरएसएस और भाजपा में संभव नहीं है. फिर क्यूँ आरएसएस ऐसे बयांन जारी करता है? क्यूंकि आरएसएस को ऐसा लगता है की कहीं बिहार चुनाव में दलित वोट पाने के चक्कर में सवर्ण वोट चले न जाएँ? सवर्णों का यह मुगालता बना रहना चाहिए की भाजपा सवर्णों की पार्टी है.

पब्लिक पोलिटिकल पार्टी इस प्रकार के विरोधाभाषी बयानों की घोर निंदा करती है जो सवर्णों के साथ छल करने के उद्देश्य से जरी किये गए हों.

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