स्वतंत्र भारत में पैदा हुआ की भी व्यक्ति आज जो कुछ भी है उसका सबसे बड़ा कारण जाति है और जो कुछ नहीं है उसका भी सबसे बड़ा कारण जाति ही है. लोकतंत्र को जाति के प्रभाव से अछूता नहीं रखा जा सकता है. जाति कोई सतही चीज नहीं है. यह पिछले पांच हजार वर्षों से चली आ रही सामाजिक संरचना है और इतनी सुस्पष्ट, सुनियोजित एवं सुसंस्कारित है की इसका पद सोपान बनाया जा सकता है, पहचान बनाई जा सकती है, आजीविका का साधन बनाया जा सकता है.

भारतीय जनमानस जाति के सम्बन्ध में दोहरी मानसिकता का शिकार है. पहली मानसिकता है जाति जीवन का अभिन्न अंग है, पहचान है, अपनी जाति के समाज से संपक रखो, अपनी जाति में ही विवाह करो आदि.

जाति संबंधी दूसरी मानसिकता है जाति छोडो. जाति देश को, समाज को विभाजित करती है. प्रगतिशील विचारों के लिए जाति रूकावट है. जाति समाज की सोच को संकीर्ण करती है. आदि.

राजनीति कथनी और करनी में भेद का दूसरा नाम है. प्रत्येक राजनीतिक दल यह कहता है की जाति की राजनीति नहीं करनी चाहिए. जबकि करनी अर्थात व्यव्हार में सबसे अधिक महत्व जाति को ही डेटा है. ‘लोकतंत्र में मतदाता परम सत्ता है’. सभी राजनीतिक पार्टियों का सारा गुणा गणित इस आधार पर तय किया जाता है की मतदाता उसकी पार्टी के उम्मीदवार को वोट क्यूँ देगा. इस प्रश्न का उत्तर खोजना आसन भी है और कठिन भी. मतदाता को समझाना और समझना दोनों एक कठिन काम है.

 

मतदाता के प्रकार

कट्टर मतदाता: कट्टर मतदाता वो मतदाता होते हैं जो अपनी जाति के उमीदवार को ही वोट देते हैं. इनका सम्बन्ध शिक्षा, सामाजिक स्थिति, आर्थिक स्थिति आदि किसी से नहीं होता है. इनका सम्बन्ध केवल जाति से होता है. ये न तो उम्मीदवार की पार्टी का नाम जानते हैं और ना ही पार्टी का संविधान, वेबसाइट, और घोशानापत्र. ये केवल उमीदवार का नाम और जाति जानते हैं. ये वोट देने के प्रति प्रतिबद्ध होते हैं: मौसम की मार, शारीरिक मजबूरी, मतदान स्थल की दूरी आदि इनको मतदान से रोक नहीं पाती है. ये मतदान न कर पाने का कोई बहाना नहीं बनाते हैं.

विरोधी मतदाता: विरोधी मतदाता का सम्बन्ध भी जाति से होता है. विरोधी मतदाता यह मानता है की कुछ भी हो जाये फला जाति के उम्मीदवार को जीतने नहीं देना है. यह मतदाता जातिगत हीन अथवा उच्च भावना से ग्रस्त रहता है. और अपनी जातीय पूर्वाग्रह को कायम रखने के लिए वह जाति विशेष के उम्मीदवार को हराना चाहता है.

तथस्थ मतदाता: तथस्थ मतदाता मतदान के दिन तक निश्चित नहीं कर पता है की वह किस उम्मीदवार को वोट देगा. कभी वो पार्टी के वादों में खो जाता है, कभी विकास के नारों में, कभी अफवाहों में और कभी लालच में. यह मतदाता लोकसभा चुनाव में किसी पार्टी को वोट देता है, विधानसभा चुनाव में किसी दूसरी पार्टी को और स्थानीय चुनाव में किसी तीसरी पार्टी को. इसके लिए पार्टी और उमीदवार से अधिक मुद्दे महत्वपूर्ण होते हैं.

कोई भी राजनीतिक पार्टी अपने कट्टर मतदाताओं को खोना नहीं चाहती है. इसीलिए वह जाति विशेष के मतदाताओं की संख्या देखकर उमीदवारो का चयन करती है, विरोधी मतदाताओं को देखकर उमीदवारों का चयन करती है, दूसरी पार्टी के उमीदवार की जाति को देखकर भी उमीदवारों का चयन करती है.

व्यक्ति का धर्म बदल जाता है पर जाति नहीं, धर्म बदलने से संपत्ति और रोज़गार के साधनों पर असर नहीं पडता है पर जाति देखकर ही सर्कार रोज़गार के साधन और अवसर उपलब्ध कराती है. अतः जाति को न भूलें. सर्कार जाति को हटाना नहीं बल्कि बढ़ाना चाहती है नहीं तो अपने रिकार्ड में वह व्यक्ति की जाति पूछती ही क्यूँ है?

जबतक लोकतन्त रहेगा जाति रहेगी. अगर आप जाति हटाना चाहते हैं तो इसका मतलब है आप लोकतंत्र की समझ नहीं रखते हैं.

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