भारत में सवर्णों के साथ आज़ादी के बाद सदैव ही दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता रहा है. सवर्ण सदैव ही कभी सरकार द्वारा और कभी न्यायपालिका द्वारा शोषित होते रहे है.

ऐसा ही एक ताजा उदाहरण सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ‘सुनीता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश सरकार एवं अन्य’ में देखने को मिला. 19 जनवरी 2018 को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार जाति जन्म से तय होती है. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी मान लिया की जाति, हिन्दू वर्ण व्यवस्था, पुराणों, स्मृतियों आदि के हिसाब से पैदाइश पर निर्भर करती है जिसे  आजीवन बदला नहीं जा सकता.

पूरा मामला इस प्रकार है: सुनीता अगरवाल नाम की लड़की पैदा बनिया (सवर्ण) जाति में हुई थी, उसने प्रेम विवाह वीर सिंह (जाटव अनुसूचित जाति) नामक व्यक्ति से किया. 1991 में सुनीता को अनुसूचित जाति का एक जाति  प्रमाणपत्र मिल गया की वह जाटव जाति की है और उसे पठानकोट में आरक्षण के आधार पर पोस्ट ग्रेजुएट टीचर की नौकरी मिल गई. 2013 में किसी ने शिकायत कर दी की सुनीता तो सवर्ण है अर्थात ऊँची जाति की है. तहसीलदार ने 1991 में जारी किया गया जाति प्रमाणपत्र रद्द कर दिया और सुनीता को जाति प्रमाणपत्र लौटाने को कहा. 2015 में केन्द्रीय विद्यालय संगठन ने उसकी नौकरी समाप्त कर दी. मामला अदालत में चला गया. सुप्रीम कोर्ट ने कहा की जाति विवाह से नहीं बदल सकती है, और चूँकि सुनीता ‘अगरवाल’ (सवर्ण) परिवार में जन्मी है जोकि सामान्य वर्ग में आता है अनुसूचित जाति में नहीं अतः उसे अनुसूचित जाति का प्रमाणपत्र नहीं दिया जा सकता है.

21 वर्ष नौकरी करने के बाद भी सुनीता न तो सामान्य वर्ग की मानी गई और न ही अनुसूचित जाति की. सुनीता सवर्ण थी अतः उसके अधिकारों की चिंता किसी ने नहीं की. पाठको से विनम्र अनुरोध है की सवर्ण समाज (ब्राह्मण + क्षत्रिय + कायस्थ + वैश्य) समाज की लड़कियों को अवर्णों से विवाह करने से रोके. एक कहावत है की ‘लड़की की कोई जाति नहीं होती’ इसका मतलब सुप्रीम कोर्ट के फैसले से समझ में आया और इस कहावत का भी की ‘जाति कभी नहीं जाती’.

पब्लिक पोलिटिकल पार्टी (पपोपा) सवर्णों के अधिकारों की लडाई लड़ते हुए सुनीता के साथ है.

 

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