नई दिल्ली।
पब्लिक पोलिटिकल पार्टी ने किसान दिवस पर किसानों को सतर्क और होशियार रहने की सलाह देते हुए कहा है कि कारपोरेट घरानों की नज़र हमारी कृषि और उत्पादनों पर है वह उसे अपने कब्जे में लेना चाहते हैं। श्रीमती दीपमाला श्रीवास्तव ने कहा है कि किसानों और कृषि उत्पादनों को कारपोरेट पूंजीपतियों के शिकंजे से बचाना ज़रूरी है। उन्होंने पत्रकारों को बताया कि भारत देश आज भी सम्पदा और प्राकृतिक संसाधनों का भंडार है। भारतीय कृषि और उत्पादनों की मांग विश्व भर में होती है। खाद्य सामग्री विश्व स्तर पर निर्यात होती है। ऐसे में भारतीय सम्पदा और कृषि पर धनाढ्यों और पूंजीपतियों की नज़र हमेशा से रही है और आज भी है। इसका एक प्रमाण पिछले दिनों तब लोगों के सामने आया जब भारतीय किसानों ने अपना लंबा आंदोलन उन तीन कृषि कानूनों की वापसी के लिए किया जिसमें कृषि उत्पादनों को बड़े पूंजीपतियों के हाथों सौंपे जाने का प्रावधान था। कृषि कानून तो वापस हो गए लेकिन पूंजीपतियों की गिद्धों वाली नज़र नहीं हटी है। आपको बता दें कि तीन नए कृषि कानूनों को लेकर किसानों से चली पिछले दौर की सरकार की बातचीत में कृषि मंत्री के मुंह से अनायास यह निकलना कि अगर हमने कृषि कानूनों को वापस लिया, तो अंबानी-अडानी आ जाएंगे, इस बात का सबूत पेश करता है कि सरकार पूंजीपतियों को कृषि उत्पाद पर लाभ देना चाहती है, जिसके लिए उस पर इन पूंजीपतियों का पूरा दबाव है। और आज नहीं तो कल वह अपने उद्देश्यों में कामयाब हो ही जाएंगे। जिससे बचाव बहुत ज़रूरी है। दरअसल भारत में जमाखोरी का धंधा आज़ादी के बाद से खूब फला-फूला है, जिसे अब और बढ़ावा दिया जा रहा है। इसे अगर एक छोटे से उदाहरण से समझें, तो हाल ही में महंगे हुए प्याज और टमाटर से इसका अंदाजा लगा सकते हैं। तकरीबन 9-10 महीने पहले जो प्याज और टमाटर किसानों से पचास पैसे और एक रुपए किलो भी व्यापारी नहीं खरीद रहे थे, वही प्याज हाल ही में 100 रुपए किलो तक और टमाटर 160 रुपए किलो तक बिक चुका है। हालांकि टमाटर बहुत दिनों तक जमा नहीं किया जा सकता है, लेकिन आजकल आधुनिक स्टोरेज में उसे भी एक-दो महीने तक बचाकर रखा जा सकता है। अब भारत में कुछ कार्पोरेट घराने बड़े-बड़े स्टोर बना रहे हैं, जिनमें किसानों से औने-पौने दामों में खाद्यान्न खरीदकर जमा कर लिए जाएंगे और फिर बाजार में उनका अभाव होने पर उन्हें महंगे दामों में उपभोक्ताओं को बेचेंगे। जिनमें किसान भी आखिर में उन्हीं उत्पादों का उपभोक्ता होगा जो उसने पहले मजबूरन सस्ते में बेचे थे। इसे सरकार का खुदरा बाज़ार मॉडल भी कह सकते हैं, जो पूरी तरह कार्पोरेट घरानों के कब्जे में होगा।

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