क्या सवर्णों को उपेक्षित करके पीडीए के सहारे अखिलेश चुनावी नैया पार कर सकेंगे -?
नई दिल्ली।
जैसे जैसे लोकसभा और यूपी के विधानसभा सभा के चुनावों का समय निकट आता जा रहा है वैसे-वैसे चुनावी जोड़-तोड़ भी आगे बढ़ रहे हैं। यूं तो सभी राजनीतिक दलों को सभी जातियों के वोटों की चाहत होती है लेकिन फिर भी उनका अपना एक वर्ग या जाति का वोट प्रमुख माना जाता है। कोई दल हो, कोई पार्टी हो सवर्ण वोटों को अपने हाथों से जाने नहीं देना चाहती। और अब जब सभी विपक्षी दल भाजपा को सत्ता से बेदखल करना चाहते हैं तो सवर्ण वर्ग के वोटों की अहमियत और अधिक बढ़ गई है। यूपी की समाजवादी पार्टी जो चुनावों में अपनी नैया पार लगाना चाहती है उसने अपना ध्यान पिछड़े दलित और अल्पसंख्यकों पर अधिक देना शुरू किया है तो प्रश्न उठ रहे हैं कि क्या वह अलग अलग बंटे हुए इन वर्गों और सवर्णों के बिना चुनाव जीत पाएगी -? आपको बता दें कि उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले समाजवादी पार्टी ने भगवान परशुराम के प्रति प्रेम जताकर सवर्ण वोटों को साधने का प्रयास किया था। लेकिन अब शायद इस वर्ग की उपेक्षा की जा रही है। क्योंकि समाजवादी पार्टी की नज़रें पिछड़े दलित और अल्पसंख्यक (पीडीए) के गठजोड़ पर जा टिकी हैं। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने स्पष्ट किया है कि 2024 का लोकसभा चुनाव वह पीडीए के बलबूते लड़ना चाहते हैं। यहां उन्होंने प्रदेश की लगभग 40 लोकसभा सीटों पर प्रभाव रखने वाले सवर्णों की बात नहीं की है। सवर्ण समाज के लोगों ने इस पर भी ध्यान दिया है कि पिछले दिनों रामचरित्र मानस पर उनकी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य की आपत्तिजनक टिप्पणियां आईं लेकिन इस पर अखिलेश यादव की खामोशी रही जिसको सवर्णों को ज़्यादा तवज्जो नहीं देने की रणनीति से ही जोड़कर देखा जा रहा है। समाजवादी पार्टी के नेता अति उत्साहित होकर जो स्वप्न देख रहे हैं वह सवर्णों के बिना कभी साकार नहीं हो सकता। आम चुनाव में भाजपा को सत्ता से बेदखल करने के लिए कई विपक्षी दल हाथ मिलाने को तैयार हैं मगर सवर्ण समाज को उपेक्षित करके क्या ये लोग ऐसा कर पाएंगे -?
उत्तर प्रदेश में भी भाजपा विरोधी एकजुटता की तस्वीर पेश करने के लिए अखिलेश बिहार की बैठक में शामिल होने जा रहे हैं लेकिन सर्वाधिक 80 लोकसभा सीटों वाले राज्य यूपी में दलों की अपनी अपनी तिगड़ी से तमाम उलझे समीकरणों में खटाई पड़ने की आशंका बनी हुई है। एकजुटता के नाम पर यहां प्रमुख दलों में सपा और कांग्रेस के अलावा कोई नहीं है पश्चिम उत्तर प्रदेश में कुछ प्रभाव राष्ट्रीय लोकदल का माना जाता है। बसपा फिलहाल एकला चलो के सिद्धांत पर है। अखिलेश यादव का ताज़ा रुख कांग्रेस को एक और समझौते की ओर ले जाता नज़र आ रहा है। हाल ही में अखिलेश यादव ने बयान दिया है कि भाजपा के नेतृत्व वाले राजा को वह पिछड़ा दलित अल्पसंख्यक वोट की ताकत से हराएंगे। उन्हें भरोसा है कि राज्य में भाजपा को 80 सीटों पर हराकर वह उसे केंद्र से बेदखल कर सकते हैं। लेकिन राजनीतिक समीक्षक मानते हैं कि इस रणनीति से सफलता प्राप्त करना सपा या संभावित गठबंधन के लिए आसान नहीं होगा क्योंकि सवर्ण समाज को उपेक्षित करके यह कभी सफल नहीं हो सकते। सवर्ण समाज के लोगों का मानना है कि जब समाजवादी पार्टी के एमएलसी स्वामी प्रसाद रामचरित्र मानस पर काफी अशोभनीय टिप्पणी कर रहे थे तब उस पर अखिलेश यादव चुप्पी साधे रहे,जिसका संदेश सवर्णों के बीच सही नहीं गया।
सवर्ण समाज, प्रदेश की तीन दर्जन से अधिक लोकसभा सीटों पर 25% आबादी के साथ समान प्रभावशाली भूमिका में है।
आपको बता दें कि जिस दलित पिछड़ा वोट पर सपा की नज़र है वह भी उसके हाथ से अभी काफी दूर है। 2014 के बाद से भाजपा को लगातार मिली विजय बताती है कि उससे पिछड़ा वोट भी जुड़ा है। वैसे दलित वर्ग पर आज भी सबसे अधिक प्रभाव बहुजन समाज पार्टी का ही माना जाता है। दलित पिछड़ा वर्ग के वोटों को खींचना सपा के लिए इतना आसान नहीं होगा। क्योंकि दलितों का साथ 2019 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश को तब भी नहीं मिला था जब मायावती ने उनके साथ गठबंधन कर मंच साझा किया था। यही कारण है की बसपा 2014 के मुकाबले 0 से बढ़कर 10 पर पहुंच गई थी जबकि समाजवादी पार्टी 5 सीटों पर ही सिमट गई थी। अब यदि बिहार की बैठक में सहमति बन भी गई और कांग्रेस ने सीट बंटवारे में कड़वा घूंट पीकर सपा से समझौता कर भी लिया तो उसके लिए सपा की सवर्णों को नज़रअंदाज करने वाली रणनीति पर चलना हानि कारक ही होगा क्योंकि उसके पुराने वोट बैंक में दलित मुस्लिमों के साथ सवर्ण ही प्रमुख रहा है। और सवर्ण समाज ही इनको हराने और जिताने की हैसियत रखता है।
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